Class 12 Samanya Hindi

Class 12 Samanya Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 5 “सुभाषितरत्नानि”

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BoardUP Board
TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectSamanya Hindi
ChapterChapter 5
Chapter Nameसुभाषितरत्नानि
CategoryClass 12 Samanya Hindi

UP Board Master for Class 12 Samanya Hindi संस्कृत दिग्दर्शिका Chapter 5 “सुभाषितरत्नानि”

श्लोकों का असदर्भ अनुवाद

(1) भाषासु मुख्या मधुरा ………………………………………. तस्मादपि सुभाषितम् ।।

[ दिव्या=अलौकिक। गीर्वाणभारती = देववाणी (संस्कृत)। गीर्वाण = देवता। भारती = भाषा, वाणी। तस्मात् अपि =उससे भी अधिक।]
सन्दर्भ-यह श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘सुभाषितरत्नानि’ पाठ से अवतरित
[ विशेष—इस पाठ के सभी श्लोकों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।] अनुवाद-भाषाओं में संस्कृत सबसे प्रधान, मधुर और अलौकिक है। उससे (अधिक) मधुर उसका काव्य है और उस (काव्य) से (अधिक) मधुर उसके सुभाषित (सुन्दर वचन या सूक्तियाँ) हैं।

(2) सुखार्थिनः ……………………………………………… त्यजेत् सुखम् ।।

अनुवाद-सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ और विद्या चाहने वाले (विद्यार्थी) को सुख कहाँ ? (इसलिए) सुख की इच्छा करने वाले को विद्या (प्राप्त करने की इच्छा) छोड़ देनी चाहिए अथवा विद्या चाहने वाले (विद्यार्थी) को सुख छोड़ देना चाहिए (आशय यह है कि विद्या बड़े कष्टों से प्राप्त होती है, इसलिए जो सुख की कामना वाले हैं, उन्हें विद्यार्जन की आशा छोड़ देनी चाहिए और यदि विद्या अर्जित करना चाहते हैं, तो सुख की इच्छा छोड़ देनी चाहिए)।

(3) जल-बिन्दु-निपातेन …………………………………”धनस्य च ||

[जल-बिन्दु-निपातेन = जल की एक-एक बूंद गिरने से पूर्यते = भरता है। ]
अनुवाद--जल की एक-एक बूंद गिरने से क्रमश: घड़ा भर जाता है। समस्त विद्याओं, धर्म और धन (को संग्रह करने) का भी यही हेतु (कारण, रहस्य) है (अर्थात् निरन्तर उद्योग करते रहने से ही धीरे-धीरे ये तीनों वस्तुएँ संग्रहीत हो पाती हैं। )।

(4) काव्य-शास्त्र-विनोदेन ……………………………………………….. कलहेन वा ।।

[ धीमताम् = बुद्धिमानों का।]
अनुवाद-बुद्धिमानों का समय काव्य और शास्त्रों (की चर्चा) के विनोद (आनन्द) में बीतता है और मूर्खा का (समय) बुरे शौकों में, सोने में या लड़ाई-झगड़े में (बीतता) है।

(5) न चौरहार्यं ………………………………………………… सर्वधनप्रधानम् ।।

[चौरहार्यं = चोरी के योग्य।]
अनुवाद–विद्यारूपी धन समस्त धनों में प्रधान (श्रेष्ठ) है; (क्योंकि) न तो चोर उसे चुरा सकता है, न राजा उसे छीन सकता है, न भाई बाँट सकता है, न यह बोझ बनता है; अर्थात् भार-रूप नहीं है और खर्च करने से यह निरन्तर बढ़ता जाता है (अन्य धनों के समान घटता नहीं )।

(6) परोक्षे ………………………………………………………… पयोमुखम् ।।

[परोक्षे = पीठ पीछे। कार्यहन्तारम् = कार्य को नष्ट करने वाला (बिगाड़ने वाला)। पयोमुखम् = जिसके मुख (ऊपरी भाग) में दूध हो।]
अनुवाद-जो पीठ पीछे काम बिगाड़ने वाला हो, पर सामने मीठा बोलने वाला हो, ऐसे मित्र को उसी प्रकार . छोड़ देना चाहिए, जिस प्रकार विष से भरे घड़े को, जिसके ऊपरी भाग में दूध हो (छोड़ दिया जाता है।)।

(7) उदेति …………………………………………………… महतामेकरूपता ।।

[ उदेति = उदित होता है। सविता = सूर्य। ताम्रः = ताँबे के समान लाल (रंग का)। एवास्तमेति (एवं + अस्तम् + एति) = ही अस्त होता है। महताम् = महापुरुषों का।]
अनुवाद-सूर्य उदित होते समय लाल होता है और अस्त होते समय भी लाल ही होता है। (इस प्रकार) सम्पत्ति और विपत्ति (दोनों स्थितियों) में महापुरुष एक रूप रहते हैं (अर्थात् सुख में हर्षित और दुःख में पीड़ित नहीं होते, अपितु समभाव से सुख और दुःख दोनों को ग्रहण करते हैं।)।

(8) विद्या विवादाय ……………………………………………. रक्षणाय ||

[ मदाय = घमण्ड के लिए।]
अनुवाद-खल (दुष्ट व्यक्ति) की विद्या वाद-विवाद के लिए, धन घमण्ड के लिए और शक्ति दूसरों को सताने के लिए होती है। इसके विपरीत साधु (सज्जन) की विद्या ज्ञान-प्राप्ति के लिए, धन दान के लिए और शक्ति (दूसरों की) रक्षा के लिए होती है।

(9) सहसा विदधीत …………………………………………………… सम्पदः ।।

[विदधीत = करना चाहिए। क्रियाम् = (किसी) काम को। अविवेकः = विचारहीनता। परमापदाम् (परम +आपदाम्) = भयंकर आपत्तियों का वृणुते = वरण करती है। विमृश्यकारिणम् = सोच-विचारकर काम करने वाले को। गुणलुब्धाः = गुणों पर लुभायी या रीझी। सम्पदः = लक्ष्मी।]
अनुवाद-सहसा (बिना विचारे यकायक) कोई काम नहीं करना चाहिए, (क्योंकि) विचारहीनता भयंकर आपत्तियों का घर है। जो व्यक्ति खूब सोच-विचारकर कार्य करता है, उसके गुणों पर रीझी हुई लक्ष्मी स्वत: ही उसका वरण करती है।

(10) वज्रादपि ………………………………………………….विज्ञातुमर्हति ।।

[ वज्रादपि (वज्रात् + अपि) = वज्र से अधिक। मृदूनि = कोमल। लोकोत्तराणाम् = असाधारण (महान्) पुरुषों के चेतांसि = चित्त (या मन) को। विज्ञातुम् = जानने में। अर्हति = समर्थ है।]
अनुवाद-असाधारण पुरुषों (महापुरुषों) के वज्र से भी अधिक कठोर और पुष्प से भी अधिक कोमल हृदय को भला कौन समझ सकता है ?

(11) प्रीणाति यः ………………………………………………. पुण्यकृतो लभन्ते ।।

[प्रीणाति = प्रसन्न करता है। भर्तुरेव (भर्तुः + एव) = पति का ही। कलत्रम् = स्त्री (पत्नी)। तन्मित्रम् (तत् + मित्रम्) = मित्र वही है। आपदि = आपत्ति में। समक्रियम् = एक-से व्यवहार वाला। जगति = संसार में।]
अनुवाद-जो अपने अच्छे चरित्र (सुकर्मो ) से पिता को प्रसन्न करे, वही पुत्र है। जो पति का हित (भलाई) चाहती हो, वही पली है। जो (अपने मित्र की) आपत्ति (दु:ख) और सुख में एक-सा व्यवहार करे, वही मित्र है। इन तीन (अच्छे पुत्र, अच्छी पत्नी और सच्चे मित्र) को संसार में पुण्यात्मा-जन ही पाते हैं। (अर्थात् बड़े पुण्यों के फलस्वरूप ही ये तीन प्राप्त होते हैं)।

(12) कामान् ………………………………………………………….. वाचमाहुः ||

[ कामान् = कामनाओं को। दुग्धे = दुहती है, पूर्ण करती है। विप्रकर्षति = हटाती है, नष्ट करती हैं। अलक्ष्मीम् = दरिद्रता को। सूर्त= उत्पन्न करती है। दुष्कृतम् = पापों को। मङ्गलानां मातरम् = कल्याणों की माता। धीराः = धैर्यवान्। सूनृताम् = सुभाषित। वाचम् = वाणी को।]
अनुवाद-जो (सुभाषित वाणी) इच्छाओं को दुहती है, दरिद्रता को दूर करती है, कीर्ति को जन्म देती है। (और जो) पाप को नष्ट करती है, (जो) शुद्ध, शान्त (और) मंगलों की माता है, (उस) गाय को धैर्यवान् लोगों ने सुभाषित वाणी कहा है।

(13) व्यतिषजति ………………………………………………… चन्द्रकान्तः ।।

[ व्यतिषजति – मिलती है (परस्पर प्रीति स्थापित करता है)। पदार्थान् = पदार्थों को। आन्तरः हेतुः = आन्तरिक कारण बहिसपाधीन (बहिः + उपाधीन) = बाह्य कारणों (या विशेषताओं) पर। पतङ्गस्योदये (पतङ्गस्य + उदये) = सूर्य के उदित होने पर। पुण्डरीकम् = कमल। हिमरश्मावुदगतेः (हिमरश्मौ + उदगतेः) = शीतल किरणों वाले चन्द्रमा के निकलने पर।]
अनुवाद-कोई आन्तरिक कारण ही पदार्थों को (आपस में) मिलाता है (या उनमें परस्पर प्रीति स्थापित करता है)। प्रीति (या प्रेम) निश्चय ही बाह्य कारणों (या विशेषताओं) पर आश्रित (निर्भर) नहीं होती। जैसे सूर्य के उदित होने पर ही कमल खिलता है और चन्द्रमा के निकलने पर ही चन्द्रकान्त-मणि द्रवित होती है।

(14) निन्दन्तु …………………………………………………… पदं न धीराः ||

[ निन्दन्तु=निन्दा करें। नीतिनिपुणाः = लोकनीति (या लोकव्यवहार) में कुशल लोग। स्तुवन्तु = प्रशंसा करें। समाविशतु = आये| यथेष्टम् = स्वेच्छा से। युगान्तरे = युगों बाद न्याय्यात् पथः = न्याय के मार्ग से। पदम् = पग।]
अनुवाद–लोकनीति में कुशल लोग चाहे निन्दा करें, चाहे प्रशंसा; लक्ष्मी चाहे आये या स्वेच्छानुसार चली जाए। आज ही मरण हो जाए, चाहे युगों बाद हो, किन्तु धैर्यशाली पुरुष न्याय के मार्ग से एक पग भी विचलित नहीं होते। (अर्थात् कैसी भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति हो, धैर्यशाली पुरुष न्याय के मार्ग से रंचमात्र भी नहीं हटते)।

(15) ऋषयो ……………………………………… निर्ऋतिः ||

[ वाचमुन्मत्तदृप्तयोः = अहंकारी (दृप्त) और उन्मत्त (मतवाले) व्यक्तियों की वाणी को (वाचम्)।
राक्षसीमाहुः (राक्षसीम् + आहुः) = राक्षसी कहा है। योनिः = जन्म देने वाली। निऋतिः = विपत्ति।]
अनुवाद-ऋषियों ने उन्मत्त और अहंकारी पुरुषों की वाणी को राक्षसी कहा है, (क्योंकि) वह समस्त वैरों को जन्म देने वाली और संसार की विपत्ति का कारण होती है (अर्थात् अहंकार से भरी वाणी दूसरों के मन पर चोट करके शत्रुता को जन्म देती है और संसार के सारे झगड़े उस के कारण होते हैं)। 1

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