UP board syllabus सूत-पुत्र – नाटक – डॉ. गंगासहाय प्रेमी
Board | UP Board |
Text book | NCERT |
Subject | Sahityik Hindi |
Class | 12th |
हिन्दी नाटक- | सूत-पुत्र डॉ. गंगासहाय ‘प्रेमी’ |
Chapter | 4 |
Categories | Sahityik Hindi Class 12th |
website Name | upboarmaster.com |
(इलाहाबाद, सहारनपुर, अलीगढ़, मुजफ्फरनगर, गाजीपुर, मैनपुरी, जालौन, हरदोई, बाराबंकी जिलों के लिए निर्धारित)
प्रश्न-पत्र में पठित नाटक से चरित्र-चित्रण, नाटक के तत्त्वों व तथ्यों पर आधारित दो प्रश्न दिए जाएंगे, जिनमें से किसी एक का उत्तर लिखना होगा, इसके लिए 4 अंक निर्धारित हैं।
नाटक का सार
डॉ. गंगासहाय प्रेमी द्वारा रचित नाटक ‘सूत-पत्र’ महाभारतकालीन प्रसिद्ध पात्र कर्ण के जीवन की घटनाओं पर आधारित है। इस नाटक। में पौराणिक कथा को आधार बनाकर वर्तमान भारतीय समाज की जाति, वर्ण, वर्ग एवं नारी-समाज की विसंगतियों, नारी शिक्षा का अभाव, नारी की सामाजिक दयनीयता, समाज में नारियों की विवशता आदि पर प्रहार किया गया है, जो वर्तमान समाज में व्याप्त विसंगतियों की ओर । ही संकेत करता है।
‘महाभारत’ के मनस्वी, संघर्षशील एवं कर्मठ व्यक्तित्व के स्वामी कर्ण के प्रति पाठकों एवं दर्शकों की सहानुभूति उत्पन्न करने के
अतिरिक्त नाटककार ने उन सामाजिक समस्याओं की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया है, जो आधुनिक समाज में भी व्याप्त हैं। नाटककार ने प्रस्तुत रचना में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ अपनी कल्पना का सुन्दर समायोजन किया है। नाटककार के द्वारा ऐतिहासिक तथ्यों के माध्यम से भारतीय समाज की विसंगतियों की ओर समाज व पाठक का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया है। नाटककार ने सभी अंकों को एक सूत्र में पिरोने का सफल प्रयास किया है। नारी शिक्षा की समस्या, नारी की समाज में विवशता एवं मजबूरियों आदि का चित्रण करके नाटककार ने इसे आज के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक बनाया है। ।
कथावस्तु पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 1. ‘सूत-पुत्र’ नाटक की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।
अथवा सूत-पुत्र’ नाटक का कथानक अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा सूत-पुत्र’ नाटक की कथावस्तु पर प्रकाश डालिए।
अथवा ‘सूत-पुत्र के प्रथम अंक का सारांश लिखिए।
अथवा ‘सूत-पुत्र’ नाटक की कथावस्तु लिखिए।
उत्तर डॉ. गंगासहाय ‘प्रेमी’ द्वारा लिखित नाटक ‘सूत-पुत्र’ के प्रथम अंक का प्रारम्भ महर्षि परशुराम के आश्रम के दश्य से होता है। धनर्विद्या के आचार्य एवं श्रेष्ठ धनुर्धर परशुराम, उत्तराखण्ड में पर्वतों के बीच तपस्यालीन है। । परशराम ने यह व्रत ले रखा है कि वे केवल ब्राह्मणों को ही धनुर्विद्या सिखाएंगे। सूत-पुत्र कर्ण की हार्दिक इच्छा है कि वह एक कुशल लक्ष्यवेधी धनर्धारी बने। इसी उद्देश्य से वह परशुराम जी के आश्रम में पहुंचता है और स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से धनर्विद्या की शिक्षा प्राप्त करने लगता है। इसी दौरान, एक दिन कर्ण की जंघा पर सिर रखकर परशुराम सोए रहते हैं, तभी एक कीड़ा कर्ण की जंघा को काटने लगता है जिससे रक्तस्राव होता है। कर्ण उस दर्द को सहन करता है, क्योंकि वह अपने गुरु परशुराम की नींद तोड़ना नहीं चाहता। रक्तसाव होने से परशराम की नींद टट जाती है और कर्ण की सहनशीलता को देखकर उन्हें उसके क्षत्रिय होने का सन्देह होता है। उनके पूछने पर कर्ण उन्हें सत्य बता देता है।। परशराम अत्यन्त क्रोधित होकर कर्ण को शाप देते हैं कि मेरे द्वारा सिखाई गई विद्या को तुम अन्तिम समय में भूल जाओगे और इसका प्रयोग नहीं। कर पाओगे। कर्ण वहाँ से उदास मन से वापस चला आता है।
प्रश्न 2 सूत-पुत्र’ नाटक के द्वितीय अंक की कथा का सार संक्षेप में लिखिए।
अथवा द्रौपदी-स्वयंवर की कथा ‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर लिखिए।
उत्तर ‘सूत-पुत्र’ नाटक का द्वितीय अंक द्रौपदी के स्वयंवर से आरम्भ होता है। राजकुमार और दर्शक एक सुन्दर मण्डप के नीचे अपने-अपने आसनों पर विराजमान हैं। खौलते तेल के कड़ाह के ऊपर एक खम्भे पर लगातार घूमने वाले चक्र पर एक मछली है। स्वयंवर में विजयी बनने के लिए तेल में देखकर उस मछली की आँख को बेधना है। अनेक राजकमार लक्ष्य बेधने की कोशिश करते हैं। और असफल होकर बैठ जाते हैं। प्रतियोगिता में कर्ण के भाग लेने पर राजा द्रुपद आपत्ति करते हैं और उसे अयोग्य घोषित कर देते हैं। दुर्योधन उसी समय कर्ण को अंग देश का राजा घोषित करता है। इसके बावजूद कर्ण का क्षत्रियत्व एवं उसकी
पात्रता सिद्ध नहीं हो पाती और कर्ण निराश होकर बैठ जाता है। उसी समय ब्राह्मण वेश में अर्जुन एवं भीम सभा-मण्डप में प्रवेश करते हैं। लक्ष्य बेध की अनुमति मिलने पर अर्जुन मछली की आँख बेध देते हैं तथा राजकुमारी द्रौपदी उन्हें वरमाला पहना देती हैं। अर्जुन द्रौपदी को लेकर चले जाते हैं। सूने सभा-मण्डप में
दुर्योधन एवं कर्ण रह जाते हैं। दर्योधन, कर्ण से द्रौपदी को बलपूर्वक छीनने के लिए कहता है, जिसे कर्ण नकार देता है। दुर्योधन ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन एवं भीम से संघर्ष करता है और उसे पता चल जाता है कि पाण्डवों को लाक्षागृह में जलाकर मारने की उसकी योजना असफल हो गई है। कर्ण पाण्डवों को बड़ा भाग्यशाली बताता है। यहीं पर द्वितीय अंक समाप्त हो जाता है।
प्रश्न 3. सूत-पुत्र’ नाटक में वर्णित कर्ण-कुन्ती संवाद का सारांश लिखिए।
अथवा ‘सूत-पुत्र’ नाटक के तृतीय अंक की कथा का सार अपने शब्दों में। लिखिए।
अथवा सूत-पुत्र’ नाटक के तृतीय अंक में कर्ण-इन्द्र या कर्ण-कुन्ती संवाद का सारांश लिखिए।
उत्तर अर्जुन एवं कर्ण दोनों देव-पुत्र हैं। दोनों के पिता क्रमश: इन्द्र एवं सूर्य को युद्ध के समय अपने-अपने पुत्रों के जीवन की रक्षा की चिन्ता हुई। तीसरे अंक की कथा इसी पर केन्द्रित है। यह अंक नदी के तट पर कर्ण की सूर्योपासना से प्रारम्भ होता है। कर्ण द्वारा सूर्य देव को पुष्पांजलि अर्पित करते समय सूर्य देव उसकी सुरक्षा के लिए उसे स्वर्ण के दिव्य कवच एवं कुण्डल प्रदान करते हैं। वे इन्द्र की भावी चाल से भी उसे सतर्क करते हैं तथा कर्ण को उसके पूर्व वृत्तान्त से परिचित कराते हैं। इसके बावजूद, वे कर्ण को उसकी माता का नाम नहीं बताते। कुछ समय पश्चात् इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन की सुरक्षा हेतु ब्राह्मण का वेश धारण कर कर्ण से उसका कवच-कुण्डल माँग लेते हैं। इसके बदले इन्द्र कर्ण को एक
अमोघ शक्ति वाला अस्त्र प्रदान करते हैं, जिसका वार कभी खाली नहीं जाता। इन्द्र के चले जाने के बाद गंगा तट पर कुन्ती आती है। वह कर्ण को बताती है कि वही उसका ज्येष्ठ पुत्र है। कर्ण कुन्ती को आश्वासन देता है कि वह अर्जुन के अतिरिक्त किसी अन्य पाण्डव को नहीं मारेगा। दुर्योधन का पक्ष छोड़ने सम्बन्धी कुन्ती के अनुरोध को कर्ण अस्वीकार कर देता है। कुन्ती कर्ण को आशीर्वाद देकर चली जाती है और इसी के साथ नाटक के तृतीय अंक का समापन हो जाता है।
प्रश्न 4 सूत-पुत्र’ नाटक के अन्तिम (चतुर्थ) अंक की कथा संक्षेप में लिखिए।
अथवा ‘सूत-पुत्र’ के चतुर्थ अंक के आधार पर सिद्ध कीजिए कि कर्ण युद्धवीर होने के साथ-साथ दानवीर भी था।
उत्तर डॉ. गंगासहाय ‘प्रेमी’ द्वारा रचित ‘सूत-पुत्र’ नाटक के चौथे (अन्तिम) अंक की कथा का प्रारम्भ कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि से होता है। सर्वाधिक रोचक एवं प्रेरणादायक इस अंक में नाटक के नायक कर्ण की दानवीरता, वीरता, पराक्रम, दृढ़प्रतिज्ञ संकल्प जैसे गुणों का उदघाटन होता है। अंक के प्रारम्भ में एक ओर। श्रीकृष्ण एवं अर्जुन, तो दूसरी ओर कर्ण एवं शल्य हैं। शल्य एवं कर्ण में। वाद-विवाद होता है और शल्य कर्ण को प्रोत्साहित करने की अपेक्षा हतोत्साहित करता है। कर्ण एवं अर्जुन के बीच युद्ध शुरू होता है और कर्ण अपने बाणों से अर्जुन के रथ को पीछे धकेल देता है। श्रीकृष्ण कर्ण की वीरता एवं योग्यता की प्रशंसा करते हैं, जो अर्जुन को अच्छा नहीं लगता।। कर्ण के रथ का पहिया दलदल में फँस जाता है। वह जब पहिया निकालने की कोशिश करता है, तो श्रीकृष्ण के संकेत पर अर्जुन निहत्थे कर्ण पर बाण-वर्षा
प्रारम्भ कर देते हैं, जिससे कर्ण मर्मान्तक रूप से घायल हो जाता है और गिर पड़ता है। सन्ध्या हो जाने पर युद्ध बन्द हो जाता है। श्रीकृष्ण कर्ण की दानवीरता की परीक्षा लेने के लिए युद्धभूमि में पड़े कर्ण से सोना (स्वर्ण) माँगते हैं। कर्ण अपना सोने के दाँत तोड़कर और उन्हें जल से शुद्ध कर ब्राह्मण वेशधारी श्रीकृष्ण
को देता है। श्रीकृष्ण एवं अर्जुन अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होते हैं। श्रीकृष्ण कर्ण को गले लगाते जाते हैं और अर्जुन कर्ण का चरण-स्पर्श करते हैं। यहीं पर नाटक समाप्त हो जाता है।
प्रश्न 5. सूत-पुत्र के सर्वाधिक मार्मिक स्थल पर प्रकाश डालिए।
उत्तर डॉ. गंगासहाय ‘प्रेमी’ द्वारा रचित सूत-पुत्र नाटक का सबसे अधिक मार्मिक स्थल कर्ण की जीवन लीला का अन्त है। कर्ण युद्ध भूमि में घायल होकर मरने की स्थिति में पड़ा हुआ है। शरीर में लगे घावों के कारण वह अधिक पीड़ा का अनुभव कर रहा है। अवसर पाकर श्रीकृष्ण उसकी दानवीरता एवं साहस की परीक्षा लेने पहुँचते हैं। वे ब्राह्मण का वेश धारण कर उससे सोने (स्वर्ण) का दान माँगते हैं। युद्ध भूमि में दान देने के लिए कर्ण के पास कुछ भी नहीं है। वह उनसे अपने सोने (स्वर्ण) के दो दाँत उखाड़ने के लिए निवेदन करता है। श्रीकृष्ण ऐसा करने से मना कर देते हैं। वह चलने में असमर्थ है। अत: वह कृष्ण से पत्थर देने का आग्रह करता है, जिससे कि वह अपने दाँत तोड़कर उसे दान में दे सके।
श्रीकृष्ण के द्वारा ऐसा करने से भी मना करने पर वह स्वयं आहत अवस्था में घिसटते हुए पत्थर उठाता है और अपने दाँत तोड़कर उनको दान में दे देता है। श्रीकृष्ण रक्त से सने हुए दाँतों को अपवित्र बताते हैं और दान लेने से मना कर देते हैं। वह बड़ी कठिनता से अपना धनुष उठाता है और पृथ्वी पर बाण का प्रहार
कर जल की धारा बहा देता है और उस जल की धारा में अपने टूटे हुए दाँत धोकर कृष्ण को दे देता है। कर्ण की दानवीरता एवं साहस से प्रभावित होकर श्रीकृष्ण उसके सामने अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो जाते हैं और उसे साधुवाद देते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि श्रीकृष्ण ने अन्तिम समय में कर्ण की परीक्षा लेकर उसके चरित्र को महान दानी के रूप में उकेरा है।
प्रश्न 6. नाट्य-कला की दृष्टि से ‘सूत-पुत्र’ नाटक की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा नाट्य-कला की दृष्टि से सूत-पुत्र की समीक्षा कीजिए।
अथवा ‘सूत-पुत्र’ नाटक के उद्देश्य पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
अथवा नाट्य-कला की दृष्टि से ‘सूत-पुत्र’ नाटक की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा “सूत-पुत्र’ नाटक की कथोपकथन/संवाद-योजना की दृष्टि से समीक्षा कीजिए।
अथवा ‘सूत-पुत्र’ नाटक की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर नाटककार डॉ. गंगासहाय प्रेमी’ ने ‘सूत-पुत्र’ नाटक को कर्ण के जीवन-चरित्र को आधार बनाकर लिखा है। नाट्य तत्त्वों के आधार पर इस नाटक की समीक्षा निम्न है-
- कथानक यह एक ऐतिहासिक नाटक है। इस नाटक का कथानक महाभारत से सम्बन्धित है। इसमें दानवीर कर्ण के जीवन की घटनाओं का वर्णन किया गया है। इस नाटक में चार अंक हैं। चौथे अंक में तीन दृश्य प्रस्तुत किए गए हैं। इस नाटक की कथा का आरम्भ कर्ण-परशुराम के । संवाद से हुआ है। कथा का विकास परशुराम द्वारा कर्ण को आश्रम से। निकालने की घटना से होता है। इन्द्र के द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल माँगने की घटना नाटक के उत्कर्ष को प्रस्तुत करती है। कुन्ती और कर्ण के संवाद के समय नाटक उतार पर होता है तथा क्रमश: कर्ण के सम्पूर्ण जीवन की घटनाओं को प्रस्तुत करता है। इस नाटक का कथानक सुगठित तथा घटना प्रधान है।
- पात्र एवं चरित्र-चित्रण नाटककार ने ‘सूत पुत्र’ नाटक के अधिकतर पात्रों को महाभारत से लिया है। नाटककार के मतानुसार महाभारत की घटनाएँ ऐतिहासिक हैं। इस नाटक के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण, कर्ण, अर्जुन, परशुराम और दुर्योधन आदि हैं। भीम, कुन्ती, सूर्य, इन्द्र आदि गौण पात्र हैं।
- देशकाल तथा वातावरण देशकाल और वातावरण की दृष्टि से यह नाटक पौराणिक पृष्ठभूमि पर आधारित है, परन्तु नाटककार ने नारी के स्थान को समाज में स्थापित करने के लिए वर्तमान परिवेश को भी प्रस्तुत किया है। वेशभूषा, युद्ध के उपकरण, स्वयंवर, धर्म आदि की मान्यताओं की दृष्टि से ऐतिहासिक, पौराणिक वातावरण की संयोजना में नाटककार को पूर्ण सफलता मिली है।
- संवाद योजना प्रस्तुत नाटक के कथोपकथन या संवाद पूर्णत:
स्वाभाविक, सारगर्भित, बोधगम्य, सरल, स्पष्ट, मार्मिक एवं प्रवाहपूर्ण हैं। संवाद कहीं-कही संक्षिप्त हैं, तो कहीं-कहीं लम्बे भी। नाटककार ने संवादों को पात्रानुकूल एवं आवश्यकतानुसार ही रखा है। अनावश्यक रूप से उनका कहीं भी विस्तार नहीं किया गया है। सरसता एवं भाव-अभिव्यंजना इस नाटक के संवादों के अन्य महत्त्वपूर्ण गुण हैं। संवाद तर्कप्रधान एवं पात्रों के चरित्र के विकास में सहायक हैं। प्रासंगिक कथाओं के चित्रण में नाटककार
ने वार्तालाप का सहारा लेकर अपनी योग्यता, मौलिकता एवं कल्पना-शक्ति का अच्छा परिचय दिया है। नाटक में गीतों का प्रयोग भी हुआ है। स्वगत कथन अधिक हैं, जिससे नाटक के प्रवाह में कुछ रुकावट आती है। इसके बावजूद, नाटक के संवादों में कहीं भी शिथिलता नहीं है। इस तरह। संवाद-योजना की दृष्टि से ‘सूत-पुत्र’ एक श्रेष्ठ नाटक है।
5 भाषा-शैली प्रस्तुत नाटक की भाषा सरल, स्वाभाविक एवं शुद्ध
साहित्यिक खड़ीबोली है। नाटक में हालाँकि संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग किया गया है, किन्तु भाषा पाठकों के लिए कठिन एवं दुरुह नहीं है। पात्रों के अनुकूल नाटक की भाषा में चित्रात्मकता के दर्शन भी होते हैं। स्थान-स्थान पर सूक्ति, व्यंग्य एवं मुहावरों का प्रयोग मिलता है। शैली की दृष्टि से नाटक संवादात्मक एवं सम्भाषण-प्रधान है। स्वगत शैली एवं काव्य शैली का प्रयोग भी हुआ है। प्रसाद तथा ओज-गुण नाटक की शैली की विशेषता है। नाटक में वीर रस की प्रधानता है, इसलिए इसमें ओज-गुण
सर्वत्र द्रष्टव्य है। कहीं-कहीं हास्य-व्यंग्य का पट भी परिलक्षित होता है। लक्ष्य-बेधने में असफल एक राजा का स्वागत दर्शक इस प्रकार करते हैं- पहला स्वर-विशालकाय जी! आप कड़ाह तक गए, यही बहुत है। दसरा स्वर-मोटे जी को कोई दुःख नहीं है अपनी असफलता का। नाटक की भाषा पूर्णत: सशक्त एवं प्रवाहमयी है।
- अभिनय एवं रंगमंच ‘सूत-पुत्र’ नाटक अभिनय एवं रंगमंचीय दृष्टिकोण से अधिक श्रेष्ठ प्रतीत नहीं होता। यह नाटक चार अंकों में विभाजित है। चार अंकों का मंचन कुछ अधिक लम्बा हो जाता है। चौथे अंक में दृश्यों की संख्या तीन है। इस प्रकार मंच पर उसे अधिक सेट लगाने पड़ेंगे। इन कमियों के बावजूद इसमें पात्रों, संवादों आदि के रंगमंचीय स्वरूप को ध्यान । में रखा गया है। तकनीकी संवाद और संवाद-सुबोधता का भी उचित ध्यान
मा नै पाटनीयता की दृष्टि से यह नाटक अत्यधिक उपयक्त है।
लेकिन रंगमंचीयता की दृष्टि से लम्बे संवाद कहीं-कहीं असुविधाजनक हो। गए हैं। - उद्देश्य ‘सूत-पुत्र’ नाटक के नाटककार का उद्देश्य महाभारतकालीन ऐतिहासिक तथ्यों को प्रस्तुत करके वर्तमान भारतीय समाज की विसंगतियों। की ओर पाठकों एवं दर्शकों का ध्यान आकृष्ट करना है। नाटककार ने इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर नाटक में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ अपनी कल्पना का सुन्दर समायोजन किया है।
जिसे निम्न बिन्दुओं के रूप में समझा जा सकता है
(i) जाति एवं वर्ण-व्यवस्था सम्बन्धी विसंगतियों को कर्ण-परशुराम संवाद द्वारा दर्शाया गया है।
(ii) जाति-वर्ण व्यवस्था की विडम्बना को कर्ण-द्रुपद संवाद द्वारा भी दर्शाया गया है।
(iii) नारी की सामाजिक स्थिति को कर्ण-कन्ती संवाद से स्पष्ट किया गया है।
(iv) उच्च वर्ण की मदान्धता को कर्ण-शल्य संवाद रेखांकित करता है।
प्रश्न 7. ‘सूत-पुत्र’ नाटक की विशेषताओं का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर ‘सूत-पुत्र’ नाटक में नाटककार ने ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से सामाजिक, राजनैतिक, जातिगत आदि घटनाओं एवं व्यवस्थाओं को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इस आधार पर ‘सूत-पुत्र’ नाटक की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं ।
(i) ऐतिहासिकता नाटक के प्रारम्भ में ही नाटककार ने कर्ण एवं परशुराम संवाद को प्रस्तुत किया है। नाटक का कथानक ऐतिहासिक पात्रों एवं घटनाओं पर आधारित है। नाटककार ने इन ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से वर्तमान समाज में व्याप्त वर्ण-व्यवस्था एवं जाति-व्यवस्था से सम्बन्धित विसंगतियों पर प्रहार किया है। प्रस्तुत नाटक में कर्ण के चरित्र की विशेषताएँ
उसकी सामाजिक प्रताड़नाओं, मानसिक क्लेश, जाति एवं, वर्ण आदि सामाजिक रूढ़ियों पर आधारित क्रूरता आदि को प्रदर्शित करते हुए वह अपने चर्मोत्कर्ष पर पहुँचती हैं।
(ii) गुरु-शिष्य के सम्बन्ध ‘सूत-पुत्र’ नाटक में नाटककार ने गरु-शिष्य के सम्बन्धों को भी प्रस्तुत किया है। ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि आदर्श गुरु वह होता है, जो सभी प्रकार से अपने शिष्यों की सेवा करे, उसकी गलती पर उसे सचेत करे तथा शिष्य को भी सर्वथा यह ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने गुरु का कभी तिरस्कार न करे। प्रस्तुत नाटक में नाटककार ने परशराम और भीष्म के माध्यम से इसे स्पष्ट किया है।
(iii) नारी के प्रति श्रद्धा भाव नाटककार ने कर्ण के माध्यम से नारी के प्रति अगाध श्रद्धा की भावना को प्रदर्शित करने का प्रयास किया है। ‘सत-पत्र नाटक में कर्ण जैसा पात्र नारी (अपनी माता) के द्वारा अपमान सहन करता है, परन्तु फिर भी कर्ण के हृदय में नारी के प्रति आदर, सम्मान व श्रद्धा का भाव बना रहता है।
(iv) समाज में व्याप्त विसंगतियों का चित्रण ‘सूत-पुत्र’ नाटक में नाटककार ने अपने पात्रों के माध्यम से नारी की विवशता वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था, नारी-शिक्षा, नैतिकता, असवर्णों के प्रति भेदभाव आदि विसंगतियों का चित्रण करके यह बताने का प्रयास किया है कि महाभारत काल में भी समाज ने जिन-जिन समस्याओं का सामना किया था वह समस्याएँ आधुनिक काल में
आज भी व्याप्त हैं।
पात्र एवं चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 8. ‘सूत-पुत्र’ नाटक के नायक की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा ‘सूत-पुत्र’ नाटक के नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए।
अथवा ‘सूत-पुत्र’ नाटक के प्रमुख पुरुष पात्र (नायक) कर्ण का
चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर डॉ. गंगासहाय प्रेमी’ द्वारा लिखित नाटक ‘सूत-पुत्र’ के नायक कर्ण के चरित्र में निम्नलिखित विशेषता
(i) गुरुभक्ति कर्ण सच्चा गुरुभक्त है। वह अपने गुरु के लिए सर्वस्व त्याग करने को तत्पर है। अत्यधिक कष्ट सहकर भी वह अपने गुरु परशुराम की निद्रा को बाधित नहीं होने देता है। गुरु द्वारा श्राप दिए जाने के बावजूद वह अपने गुरु की निन्दा सुनना पसन्द नहीं करता। द्रौपदी-स्वयंवर के समय उसकी गुरुभक्ति स्पष्ट रूप से दिखती है।
(ii) प्रवीण धनुर्धारी कर्ण धुनर्विद्या में अत्यधिक प्रवीण है। वह अपने समय का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी है, जिसके सामने अर्जुन का टिकना भी मुश्किल लगता है। इसलिए इन्द्र देवता ने अर्जुन की रक्षा के लिए कर्ण से ब्राह्मण वेश धारण कर कवच-कुण्डल माँग लिए।
(iii) प्रबल नैतिकतावादी कर्ण उच्च स्तर के संस्कारों से युक्त है। वह नैतिकता को अपने जीवन में विशेष महत्त्व देता है। इसी नैतिकता के कारण वह द्रौपदी के अपहरण सम्बन्धी दुर्योधन के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देता है।
(iv) श्रेष्ठ दानवीरता कर्ण अपने समय का सर्वश्रेष्ठ दानवीर था। उसकी दानवीरता अनुपम है। युद्ध में अर्जुन की विजय को सुनिश्चित करने के लिए इन्द्र ने कवच-कुण्डल माँगा, सारी वस्तुस्थिति समझते हुए भी कर्ण ने इसका दान दे दिया। इतना ही नहीं, युद्धभूमि में मृत्यु शैया पर पड़े कर्ण ने श्रीकृष्ण द्वारा ब्राह्मण वेश में सोना (स्वर्ण) दान में माँगने पर अपना सोने के दाँत उखाड़कर दे दिए।
(v) महान् योद्धा कर्ण एक महान योद्धा है। वह एक सच्चा महारथी है। वह अर्जुन के रथ को अपनी बाण वर्षा से पीछे धकेल देता है, जिस रथ पर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण बैठे हुए थे।
(vi) नारी के प्रति श्रद्धा भाव नारी जाति के प्रति कर्ण में गहरी निष्ठा एवं श्रद्धा है। वह नारी को विधाता का वरदान मानता है।
(vii) सच्चा मित्र कर्ण अपने जीवन के अन्त समय तक अपने मित्र दुर्योधन के प्रति गहरी निष्ठा रखता है। दुर्योधन के प्रति उसकी मित्रता को कोई भी व्यक्ति कम नहीं कर सका।
इस प्रकार, कर्ण का व्यक्तित्व अनेक श्रेष्ठ मानवीय भावों से भरा पड़ा है।
प्रश्न 9. सूत-पुत्र के आधार पर श्रीकृष्ण के चरित्र पर प्रकाश डालिए।
उत्तर डॉ. गंगासहाय ‘प्रेमी’ द्वारा लिखित ‘सूत-पुत्र’ में कर्ण के बाद सबसे प्रभावशाली एवं केन्द्रीय चरित्र श्रीकृष्ण का है।
श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं
(i) महाज्ञानी श्रीकृष्ण एक ज्ञानी पुरुष के रूप में प्रस्तुत हुए हैं। युद्धभूमि में अर्जुन के व्याकुल होने पर वे उन्हें जीवन का सार एवं रहस्य समझाते हैं। वे तो स्वयं भगवान के ही रूप हैं। अत: उनसे अधिक संसार के बारे में और किसी को क्या ज्ञान हो सकता है।
(ii) कुशल राजनीतिज्ञ श्रीकृष्ण का चरित्र एक ऐसे कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसके कारण अर्जुन महाभारत के युद्ध में विजयी बनने में सक्षम हो सके। कर्ण को इन्द्र से प्राप्त अमोघ अस्त्र को श्रीकृष्ण ने घटोत्कच पर चलवाकर अर्जुन की विजय सुनिश्चित कर दी।
(ii) वीरता या उच्चकोटि के गुणों के प्रशंसक अर्जुन के पक्ष में शामिल होने के बावजूद श्रीकृष्ण कर्ण की वीरता की प्रशंसा किए बिना न रह सके। वे कर्ण की धनुर्विद्या की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हैं।
(iv) कुशल वक्ता श्रीकृष्ण एक कुशल एवं चतुर वक्ता के रूप में सामने आते हैं। श्रीकृष्ण अपनी कुशल बातों से अर्जुन को हर समय प्रोत्साहित करते रहते हैं तथा अन्तत: युद्ध में उन्हें विजयी बनवाते हैं।
(v) अवसर का लाभ उठाने वाले वस्तुत: श्रीकृष्ण समय या अवसर के महत्त्व को पहचानते हैं। आया हुआ अवसर फिर लौटकर नहीं आता और उनकी रणनीति आए हुए प्रत्येक अवसर का भरपूर लाभ उठाने की रही है। वे अवसर से चकते नहीं हैं। यही कारण है कि कर्ण पराजित हो जाता है और अर्जुन को विजय प्राप्त होती है।
(vi) पश्चाताप की भावना श्रीकृष्ण भगवान का स्वरूप होते हुए भी मानवीय भावनाएँ रखते हैं, इसलिए उनमें पश्चाताप की भावनाएँ भी आती हैं। उन्हें इस बात का पश्चाताप है कि उन्होंने कर्ण के साथ न्यायोचित व्यवहार नहीं किया। निहत्थे कर्ण पर अर्जुन द्वारा बाण-वर्षा कराकर उन्होंने नैतिक रूप से उचित व्यवहार नहीं किया। उन्हें इस बात का गहरा पश्चाताप है, लेकिन कूटनीति एवं। रणनीति इसी व्यवहार को उचित ठहराती है।।
दस प्रकार श्रीकष्ण का चरित्र नाटक में कछ समय के लिए ही सामने आता है, लेकिन वह अत्यन्त ही प्रभावशाली एवं सशक्त है, जो पाठकों एवं दर्शकों पर अपना गहरा प्रभाव डालता है।
प्रश्न 10. ‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर कुन्ती का चरित्र-चित्रण कीजिए।
अथवा ‘सूत-पुत्र’ नाटक के किसी एक स्त्री पात्र का चरित्र-चित्रण
कीजिए।
अथवा ‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर कुन्ती की चारित्रिक
विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर डॉ. गंगासहाय ‘प्रेमी’ द्वारा रचित ‘सूत-पुत्र’ नाटक की प्रमुख नारी पात्र कुन्ती है।
कुन्ती के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(i) तेजस्वी व्यक्तित्व प्रस्तुत नाटक के तीसरे अंक में कुन्ती के दर्शन होते हैं, जब वह कर्ण के पास जाती है, उस समय वह विधवा-वेश में होती है। उसके बाल काले और लम्बे हैं। शरीर पर उसने श्वेत साड़ी धारण कर रखी है, वह अत्यन्त सुन्दर दिखाई देती है। उसका व्यक्तित्व भारतीय विधवा का पवित्र, मनोहारी एवं तेजस्वी व्यक्तित्व है।
(ii) मातृभावना कुन्ती का हृदय मातृभावना से परिपूर्ण है। जैसे ही वह युद्ध का निश्चय सुनती है, वह अपने पुत्रों के लिए व्याकुल हो उठती है। उसने आज तक कर्ण को पुत्र रूप में स्वीकार नहीं किया था. किन्तु फिर भी अपने मातृत्व के बल पर वह उसके पास जाती है और उसके सामने सत्य को स्वीकार करती है कि वह उसकी पहली सन्तान है, जिसका उसने परित्याग कर दिया था।
(ii) स्पष्टवादिता कुन्ती स्पष्टवादी है। माँ होकर भी वह कर्ण के सामने उसके जन्म और अपनी भूल की कथा को स्पष्ट कह देती है। कर्ण द्वारा यह पूछे जाने पर कि किस आवश्यकता की पूर्ति के लिए तमने सूर्यदेव से सम्पर्क स्थापित किया था? वह कहती है-“पुत्र! तुम्हारी माता के मन में वासना का भाव बिल्कुल नहीं था।” |
(iv) वाक्पटु कुन्ती बातचीत में बहुत कुशल है। वह अपनी बात इतनी कुशलता से कहती है कि कर्ण एक माँ की विवशता को समझ कर तथा उसकी भूलों पर ध्यान न देकर उसकी बात मान ले। वह पहले कर्ण को पुत्र और बाद में कर्ण कहकर अपने मन के भावों को प्रकट करती है।
(v) सूक्ष्म द्रष्टा कुन्ती में प्रत्येक विषय को परखने और उसके अनुसार कार्य करने की सूक्ष्म दृष्टि थी। कर्ण जब उससे कहता है कि तुम यह कैसे जानती हो कि मैं तुम्हारा वही पुत्र हूँ जिसे तुमने गंगा की धारा में प्रवाहित कर दिया था। वह कहती है “क्या तुम्हारे पैरों की उँगलियाँ मेरे पैरों की उँगलियों से मिलती-जलती नहीं हैं?”
(vi) कुशलनीतिज्ञ कुन्ती को राजनीति का सहज ज्ञान प्राप्त था। वह महाभारत-युद्ध की समस्त राजनीति भली-भाँति समझ रही थी। वह कर्ण को अपने पक्ष में करना चाहती है, क्योंकि वह यह जानती है कि दुर्योधन की हठवादिता कर्ण के बल पर टिकी है और उसी के भरोसे वह पाण्डवों को नष्ट करना चाहता है। जब कर्ण यह कहता है कि पाण्डव यदि सार्वजनिक रूप से मुझे अपना भाई स्वीकार करें तो उनकी रक्षा करना मेरा कर्त्तव्य हो सकता है तो वह तत्काल कह देती है-“कर्ण तुम्हारे पाँचों भाई तुम्हें अपना अग्रज स्वीकार करने का प्रस्तुत हैं।” यद्यपि पाँचों पाण्डवों को तब तक यह पता भी नहीं था कि कर्ण उनके बड़े भाई हैं। इस प्रकार नाटककार ने कुन्ती का चरित्र-चित्रण अत्यन्त कुशलता से किया है। उन्होंने थोड़े ही विवरण में कुन्ती के चरित्र को कुशलता से दर्शाया है।
प्रश्न 11. सूत-पुत्र नाटक के आधार पर कर्ण तथा दुर्योधन के चरित्र की तुलना कीजिए।
उत्तर डॉ. गंगासहाय प्रेमी कृत सूत-पत्र नाटक का प्रधान पात्र कर्ण है। और दुर्योधन गौण पात्र। दुर्योधन के चरित्र का समायोजन इस नाटक में कर्ण की चारित्रिक विशेषताओं को स्पष्ट करने एवं ऐतिहासिक तत्त्वों को प्रासंगिक बनाने के उद्देश्य से किया गया है। दोनों की चारित्रिक तुलना निम्न प्रकार है।
(i) नारी के प्रति असीम आदर कर्ण के मन में नारी जाति के प्रति असीम आदर-भाव विद्यमान है। यद्यपि उसे अपनी माता की भूल के कारण आजीवन कष्ट और अपमान सहना पड़ता है, लेकिन इतना सब कुछ होने के उपरान्त भी उसके मन में नारी जाति के प्रति सम्मान व आदर की भावना में कोई कमी नहीं आई। वह नारी जाति के प्रति निष्ठावान और शृद्धावान है। वह कहता है-“नारी विधाता का वरदान है। नारी सत्यता, संस्कृति की प्रेरणा है। नारी का अपहरण कभी भी सह्य नहीं हो सकता।” दुर्योधन इस नाटक का एक ऐसा पात्र है, जिसके मन में नारी जाति के प्रति श्रद्धा भाव नहीं है। इसी भावना से ग्रसित होकर वह द्रौपदी का अपहरण करना चाहता है। दोनों के ही विचारों में भिन्नता है। दुर्योधन
की भावना नारी के प्रति कर्ण की भावना के बिल्कुल विपरीत है।
(ii) कृतज्ञ एवं सच्चा मित्र कर्ण कृतज्ञ एवं सच्चा मित्र है। वह कृतज्ञता के गुण से परिपूर्ण युवक है। वह दुर्योधन की सहानुभूति एवं मित्रता को प्राप्त कर हमेशा कृतज्ञ रहता है। दुर्योधन कर्ण के विचारों के विपरीत है।वह स्वार्थी अधिक है। स्वार्थ के वशीभूत होकर और कर्ण की वीरता का लोहा मानकर ही उसने कर्ण से मित्रता की है। दुर्योधन भी कटनीतिज्ञ एवं मित्रता का पालन करने वाला पुरुष है।
(iii) नैतिकता का पालक कर्ण में उच्च कोटि के संस्कार विद्यमान हैं। वह नीतिवान है। वह कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहता, जो नैतिकता के विरुद्ध हो। द्रौपदी अपहरण की योजना बनाने वाले दुर्योधन को वह उसके इस कृत्य में मदद देने से मना कर देता है। वह मना ही नहीं करता, बल्कि इस कृत्य में उसकी सफलता की कामना करने से भी मना कर देता है। द्रौपदी के अपहरण करने की बात पर कर्ण, दुर्योधन से कहता है कि, “दूसरे अनुचित करते हैं इसलिए हम भी अनुचित करें, यह नीति नहीं है। किसी की पत्नी का अपहरण परम्परा से निन्दनीय है।” दुर्योधन, कर्ण का मित्र अवश्य है, लेकिन दोनों में वैचारिक भिन्नता है। दुर्योधन नीति सम्बन्धी तथ्यों को नहीं मानता है और द्रौपदी का अपहरण करना चाहता है। उसका यह सबसे बड़ा चारित्रिक दोष है।
(iv) विचारवान एवं विवेकशील कर्ण एक विचारवान एवं विवेकशील वीर पुरुष है। कर्ण में वीरता के सभी गुण विद्यमान हैं तथा वह दूरदर्शी भी है। इसके विपरीत दुर्योधन वीर होने के साथ-ही-साथ महत्त्वाकांक्षी तो है, परन्तु विचारवान व विवेकशील नहीं है। कर्ण के रथ का सारथी शल्य को नियुक्त करते समय वह उसके स्वभाव के विषय में विचार नहीं करता है। उपरोक्त गुणों को दृष्टिगत रखते हुए हम कह सकते हैं कि कर्ण और दुर्योधन में वैचारिक भिन्नता होते हुए भी वे परम मित्र हैं। एक-दूसरे के लिए प्राणार्पण तक करने को तैयार हैं। दोनों ही विरोधी भावनाओं। एवं गुणों से युक्त होते हुए भी एक सच्चे मित्र की भाँति एक-दूसरे की मदद के लिए तैयार रहते हैं।
प्रश्न 12. परशुराम का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर सूत-पुत्र नाटक में श्री गंगासहाय ‘प्रेमी’ ने परशुराम को ब्राह्मणत्व एवं क्षत्रियत्व के गुणों से युक्त दर्शाया है। वे महान् तेजस्वी एवं दुर्धर्ष योद्धा हैं। परशुराम, कर्ण के गुरु हैं। इनके पिता का नाम जमदग्नि है। परशुराम उस समय के धनुर्विद्या में अद्वितीय
ज्ञाता थे। सूत-पुत्र नाटक के आधार पर परशुराम की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
(i) ओजस्वी व्यक्तित्व परशुराम का व्यक्तित्व ओजस्वी है। नाटक में लेखक ने उनके व्यक्तित्व का चित्रण ऐसे किया है-“परशुराम की अवस्था दो सौ वर्ष के लगभग है। वे हृष्ट-पुष्ट शरीर वाले सुदृढ़ व्यक्ति हैं। चेहरे पर सफेद लम्बी-घनी दाढ़ी और शीश पर लम्बी-लम्बी श्वेत जटाएँ हैं।”
(ii) अद्वितीय धनुर्धर परशुराम उस समय के अद्वितीय धनुर्धर हैं। धनुष विद्या में वे प्रख्यात हैं। इसी कारण दूर के प्रदेशों से भी ब्राह्मण बालक इनके पास हिमालय की घाटी में स्थित आश्रम में शस्त्र-विद्या सीखने के लिए आते हैं। इनके द्वारा जिनको उस समय दीक्षित किया जाता था, उन शिष्यों को अद्वितीय माना जाता था।
भीष्म पितामह भी इन्हीं के शिष्य थे।
(ii) मानवीय स्वभाव के ज्ञाता परशुराम मानवीय स्वभाव के भी जानकार थे। वे कर्ण के क्षत्रियोचित व्यवहार से जान जाते हैं कि यह ब्राह्मण नहीं है, बल्कि क्षत्रिय है। वे उससे निस्संकोच कह भी देते हैं कि-“तुम क्षत्रिय हो कर्ण! तुम्हारे। माता-पिता दोनों ही क्षत्रिय रहे हैं।”
(iv) सहृदय एवं आदर्श गुरु परशुराम सहृदय एवं आदर्श गुरु हैं। वे अपने सभी शिष्यों को समान दृष्टि से देखते हैं तथा पुत्र के समान प्रेम करते हैं और उनके कष्टों को दूर करने के लिए हर समय तैयार रहते हैं। एक दिन कर्ण की जंघा में। कीड़ा काट लेता है और मांस में घुस जाता है, जिससे खून की धारा बह निकलती है। इससे परशराम का हृदय द्रवित हो जाता है। वे तुरन्त उसके घाव पर नखरचनी। को लगा देते हैं और कर्ण को सांत्वना देते हैं। इस घटना से परशुराम के सहृदय होने का पता चलता है।
(v) श्रेष्ठ ब्राह्मण परशुराम एक उच्च कुलीन ब्राह्मण हैं। वे ब्राह्मण का प्रमुख कार्य विद्या दान करना बताते हुए कहते हैं कि जो ब्राह्मण धन का लालची है, वह ब्राह्मण नहीं, वह अधम तथा नीच है। द्रोणाचार्य के विषय में उनकी धारणा है कि वे निम्नकोटि के ब्राह्मण हैं और उनके विषय में कहते हैं कि-“द्रोणाचार्य तो पतित ब्राह्मण है। ब्राह्मण क्षत्रिय का गरु हो सकता है, सेवक अथवा वृत्तिभोगी नहीं।”
(vi) निष्ठावान एवं दयालु परशुराम अपने कर्त्तव्य के प्रति पूर्णरूपेण निष्ठावान हैं। वे अपने कर्त्तव्य का पालन करने में वज्र के समान कठोर हैं, लेकिन दूसरों की दयनीय स्थिति को देखकर दया से द्रवित भी हो जाते हैं। इसी कारण वे कर्ण को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लेते हैं और दीक्षा देने लगते हैं।
(vii) क्रोधी एवं उदार परशुराम हृदय से उदार भी हैं। वे कर्ण की अत्यन्त दयनीय स्थिति को देखकर उन्हें अपना शिष्य बना लेते हैं, लेकिन ब्राह्मण का छद्म रूप धारण करने के कारण वे कर्ण को श्राप भी देते हैं, लेकिन जब कर्ण की दयनीय एवं दःख से परिपूर्ण दशा को देखते हैं तो उन्हें उस पर दया आ जाती है और वे कहते हैं कि-“जिस माता से तुम्हें ममता और वात्सल्य मिलना चाहिए था उसी ने तुम्हें श्राप दिया।” उनके इस प्रकार कहने से उनके उदार होने का पता चलता है। उपरोक्त चारित्रिक गुणों को दृष्टिगत रखते हुए हम कह सकते हैं कि परशुराम, कर्तव्यनिष्ठ, उदार, ओजस्वी, मानव स्वभाव के ज्ञाता एवं महान् ब्राह्मण हैं। वे एक आदर्श शिक्षक हैं तथा उनमें ब्राह्मणत्व तथा क्षत्रियत्व दोनों ही गुणों का अद्भुत समन्वय दृष्टिगोचर होता है।